धूप में जलता हुआ तन
प्यार में पागल हुआ मन
कर रहा सौ-सौ जतन
क्या भूल जाए वो सपन
सपन वो जो संग दिखे थे
गीत वो जो संग लिखे थे
राह जिन पर संग चले थे
चमन जिनमें संग मिले थे
भूलना आसां कहाँ है
साँस में जो रच-बसा हो
पलक भी ना जान पाए
आँख में ऐसा छुपा हो
मिल न पाएँगे पता था
तरस जाएँगे दरश को
सदा से ये भी पता था
शर्त मिलने की कहाँ थी?
मनों का सम्बंध था जो
तनों में क्यों ढूँढते हो
मन की गहराई में उतरो
तो असीमित प्रेम पाओ
तन क्षणिक सुख के लिए है
मन अलौकिक है अमर है
मन से मन को जोड़कर
अमरत्व ही अमरत्व पाओ।
-श्री नारायण शुक्ल, १२-नवम्बर-२०२३
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