चौरीचौरा में जन्म लिया, मैंने उन्नीस सौ पैंसठ में
वह युद्धकाल था, संकट था, पूरे भारत पर, जन-जन में
बचपन की अच्छी याद नहीं, छोड़ा घर जब मैं था बच्चा
तिरुचि में अपनी सोचों को मैंने एक लघु आकार दिया
कक्षा बारह तक शिक्षा थी, आगे बढ़ने की ईच्छा थी।
अंतर्मन से प्रेरणा मिली, मैंने सपना साकार किया।
डिप्लोमा करके डिग्री की, और एम बी ए भी कर डाला।
अभियंता का पद पाकर के, बाधाएँ सारी पार किया
इक सपना था जाऊँ विदेश, कुछ धन-सम्मान कमाने को
कुछ अपना और कुछ अपनों का, उज्जवल भविष्य बनाने को
ये सपना भी संपूर्ण हुआ, पर कीमत बड़ी चुकाने पर
सब कुछ तो इसने लील लिया, मेरा सर्वस्व गँवाने पर
अब अट्ठावन की उमर हुई, कुछ रहा नहीं समझाने को
गोली अट्ठारह खाता हूँ, साँसों को नित्य चलाने को
जी चुका स्वयम् के लिए बहुत, अब जीता हूँ अपनों के लिए
कोई दरकार नहीं मुझको, सच्चा इसको ठहराने को
विधि का है होता जो विधान, इंसान वही कुछ करता है
कुछ सही नहीं, कुछ गलत नहीं, जो करना है वो करता है
अब पुनरजनम में ही संशोधन, मैं इनमें कर पाऊँगा
जो किया यहाँ इस जीवन में, फल इसका अंगीकार किया
अंतर्मन से प्रेरणा मिली, मैंने सपना साकार किया
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