सपने व्यर्थ बुना करते हो।
तिनके व्यर्थ चुना करते हो।
सपनों से क्या मन भरता है?
तिनकों से क्या घर बनता है?
बीती रात, खो गए सपने।
बीता समय, उड़ गए अपने।
अपने क्या अपने होते हैं?
अपनों पर तुम क्यों रोते हो?
आस लगाए क्यों बैठे हो?
नजर गड़ाए क्यों बैठे हो?
करो करम और कदम बढ़ाओ।
ऐसे ही मन मत भरमाओ
कुछ होने का भ्रम करते हो?
ऐसे ही क्यों दम भरते हो?
ना कुछ हो और ना कुछ थे तुम,
बस ऐसे हम-हम करते हो।
सपने व्यर्थ बुना करते हो।
-श्री नारायण शुक्ल, 14-अगस्त-2023
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपको यह चिट्ठा कैसा लगा? लिखें।