पारम्परिक स्थलों पर वहाँ की विशेष चीजें दिखती हैं। और खाने-पीने की पारम्परिक चीजों के तो क्या कहने। स्थानीय उद्यमी नित-नूतन प्रयोग करते रहते हैं। अभी हाल ही में चौरीचौरा जाना हुआ। बाजार में जहाँ प्रसिद्ध शंकर की चाय की दुकान हुआ करती थी वहाँ दो ठेले लगते हैं। एक में शंकर का नाती चाय बेचता है और दूसरे में एक किशोर मिठाई बेचता है। छोटी सी दुकान, ठेले पर। धर्मवीर भारती की रचना “ठेले पर हिमालय” की याद आ गई। इसके ठेले पर तो मानों चाँदनी चौक की पूरी हल्दीराम की दुकान समाई हुई थी। इसका खास आइटम मिठाइयों का घमंजा जैसा था। चालीस रुपये में जाने क्या क्या। थोड़ा गाजर का हलवा, थोड़ा मूँग का हलवा, थोड़ी रबड़ी, थोड़ा कच्चा तजा पनीर, थोड़ी बूंदी, थोड़ी ताजी मलाई और अनेकों चीजें। साथ में जिसने भी खाया, बस एक ही बात कही- जीवन में इतना स्वाद पहले कभी नहीं आया।
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